सवागत है

आपका "आज का आगरा" ब्लॉग पर सवागत है यह ब्लॉग मेरे मम्मी-पापा को समर्पित!..."वन्दे मातरम्" .सवाई सिंह

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मंगलवार, जुलाई 8

सही समय पर सही निर्णय लेना भी आवश्यक है।

जीवन में सब कुछ अनुभव करना ही महत्वपूर्ण नहीं होता, बल्कि सही समय पर सही निर्णय लेना भी आवश्यक है। रास्ते पर कंकड़ ही कंकड़ हो तो भी, एक अच्छा जूता पहनकर उस पर चला जा सकता है, लेकिन यदि एक अच्छे जूते के अंदर एक भी कंकड़ हो तो, एक अच्छी सड़क पर भी कुछ कदम चलना मुश्किल है।

बाहर की चुनोतियों सें नहीं हम अपनी अंदर की कमजोरियों से हारते हैं। मनुष्य को चाहिए कि वह परिस्थितियों से लड़े, एक स्वप्न टूटे, तो दूसरा गढ़े। जो मज़ा भाग लेने में है वो मज़ा भाग जाने में कहाँ।

अपने सपनों को पूरा करने के लिए की जान लगे

शनिवार, जून 28

जीवन है एक हार या जीत से कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।

आज का सुविचार 
अपने संतानों को उच्च शिक्षण देना ही चाहिए 
किंतु संतानों को सफल होने के साथ साथ 
उन्हें असफल होने पर कैसे खुश रहना हैं 
के साथ उन्हें हारना भी सिखाना चाहिए 
जीवन है एक हार या जीत से 
कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता ।
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किसी वस्तु व्यक्ति या उसके निजी कार्य के प्रति घृणा, ईर्ष्या द्रेस या जलन का भाव रखना या उसकी उपेक्षा करना एक अज्ञानी व्यक्ति की निशानी है,
 और ऐसी सोच रखने वाला मात्र वह स्वयं अपने आप को दुःखी करता है..!
 यह एक सच्चे जिज्ञासु का गुण कदापि नहीं हो सकता है ! सच्चा जिज्ञासु सदैव प्रसन्न रहता है..!

शुक्रवार, जून 27

हमारे बचपन का भी एक जमाना था यारो और आज ?

खुद ही स्कूल पैदल जाना होता था क्योंकि साइकिल ,बस आदि से बच्चे को स्कूल भेजने का रिवाज ही नहीं था, स्कूल भेजने के बाद कुछ अच्छा बुरा होगा ऐसा हमारे मां-बाप कभी सोचते भी नहीं थे । उस समय किसी बात का डर भी नहीं था, और पूरे गांव के लोग को ये जानते थे कि बच्चा किस का पोता या पुत्र है । खोने का डर था नहीं ।

फर्स्ट, सेकंड ,थर्ड डिवीजन पास या फेल यही हमको मालूम था । पर्सेंटेज % से हमारा कभी भी संबंध नहीं रहा ।

ट्यूशन लगाई है ऐसा बताने में भी शर्म आती थी क्योंकि हमको बुद्धि से पैदल समझा जा सकता था ।

किताबों में पीपल के पत्ते, विद्या के पत्ते, मोर पंख रखकर हम होशियार हो सकते हैं ऐसी हमारी धारणाएं थी...

कपड़े की थैली में...बस्तों में और बाद में एल्यूमीनियम की पेटियों में किताब कॉपियां बेहतरीन तरीके से जमा कर रखने में हमें महारत हासिल थी।

हर साल जब नई क्लास का बस्ता जमाते थे उसके पहले किताब कापी के ऊपर पेपर की जिल्द चढ़ाते थे और यह काम एक वार्षिक उत्सव या त्योहार की तरह होता था ।

साल खत्म होने के बाद किताबें बेचना और अगले साल की पुरानी किताबें खरीदने में हमें किसी प्रकार की शर्म नहीं होती थी.*क्योंकि तब हर साल न किताब बदलती थी और न ही पाठ्यक्रम ।

 हमारे माता पिता को ऐसा कभी लगा ही नहीं कि हमारी पढ़ाई बोझ है..

  किसी एक दोस्त को साइकिल के अगले डंडे पर और दूसरे दोस्त को पीछे कैरियर पर बिठाकर गली-गली में घूमना हमारी दिनचर्या थी ।*इस तरह हम ना जाने कितना घंटे किलोमीटर घूमे होंगे पता नहीं और किसी को परवाह भी नहीं , सिर्फ चोट लगने खून बहने पर ही मां के पास आना गाली डांट सुनना और कपड़े की पानी में भीगी पट्टी या और कोई इलाज करा कर डरते डरते फिर दोस्तों के साथ खेलने भाग जाना ।

 स्कूल में मास्टर जी के हाथ से मार खाना, पैर के अंगूठे पकड़ कर खड़े रहना, और कान लाल होने तक मरोड़े जाते वक्त हमारा आत्म सम्मान कभी आड़े नहीं आता था । सही बताएं तो आत्मसम्मान क्या होता है यह हमें और किसी को भी मालूम ही नहीं था ।

घर और स्कूल में मार खाना भी हमारे दैनिक जीवन की एक सामान्य प्रक्रिया थी ।

मारने वाला और मार खाने वाला दोनों ही खुश रहते थे...

मार खाने वाला इसलिए क्योंकि कल से आज कम पिटे हैं और मारने वाला इसलिए कि आज फिर हाथ धो लिए ।

 बिना चप्पल जूते के और किसी भी गेंद के साथ लकड़ी के कपड़े धोने वाले पट्टे से कही पर भी नंगे पैर क्रिकेट खेलने में क्या सुख था वह हमको ही पता है...

 हमने जेब खर्च कभी भी मांगा ही नहीं और पिताजी ने कभी दिया भी नहीं..

इसलिए हमारी आवश्यकता भी छोटी छोटी सी ही थीं....साल में कभी-कभार दो चार बार सेव मिक्सचर मुरमुरे का भेल, गोली टॉफी , इमली, डाँसरे, खट्टा मीठा चूर्ण खा लिया तो बहुत होता था, उसमें भी हम बहुत खुश हो जाते ।...

छोटी मोटी जरूरतें तो घर में ही कोई भी पूरी कर देता था क्योंकि परिवार संयुक्त होते थे।जैसे ताऊ ताई ,चाचा चाची काका काकी, दादा दादी , बुआ आदि ..

 दिवाली में लगी पटाखों की लड़ी को छुट्टा करके एक एक पटाखा फोड़ते रहने में हमको कभी अपमान नहीं लगा.

 अपने मां बाप को कभी बता ही नहीं पाए कि हम आपको कितना प्रेम करते हैं क्योंकि हमको आई लव यू कहना भी नहीं आता था और भाई लट्ठ डंडे का जमाना था पीटने का भी डर था ।

  स्कूल की डबल ट्रिपल सीट पर घूमने वाले हम और स्कूल के बाहर उस हाफ पेंट में रहकर गोली टाॅफी बेचने वाले की दुकान पर दोस्तों द्वारा खिलाए पिलाए जाने की कृपा हमें याद है । वह दोस्त कहां खो गए , वह बेर वाली कहां खो गई।वह चूरन बेचने वाली कहां खो गई...पता नहीं.. 

कपड़ों की सलवटें को प्रेस , आयरन , से नहीं मिटते थे बल्कि रात को सोते समय अपने तकिया या अपनी कमरके नीचे रखना ही काफी था । रिश्तों में कोई औपचारिकता नहीं थी।.

सुबह का खाना और रात का खाना इसके सिवा टिफिन में अखबार में लपेट कर रोटी ले जाने का सुख क्या है, आजकल के बच्चों को पता ही नही ...

 हमारा भी एक बचपन और लड़कपन का जमाना था जनाब ।

👉 एक बात तो तय मानिए कि जो भी पूरा पढ़ेगा उसे अपने बीते जीवन के पुराने सुहाने पल अवश्य याद आयेंगे 

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शनिवार, जून 21

योग धर्म नहीं, एक विज्ञान है

योग धर्म नहीं, एक विज्ञान है

 मानव कल्याण का विज्ञान, यौवन का विज्ञान, शरीर मन और आत्मा को जोड़ने का विज्ञान है! 

करो योग, रहो सदैव निरोग। साथ ही "योग से बड़ा कोई ऐश्वर्य नहीं, योग से बड़ी सफलता नहीं, योग से बड़ी कोई उपलब्धि नहीं।"

अंतरराष्ट्रीय योग दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएं...सवाई सिंह राजपुरोहित योगाचार्य टीम सुगना फाउंडेशन भारत 

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